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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें

भगवान कैसे मिलें

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1061
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....

सर्वत्र आनन्दका अनुभव करें

भगवान् आ गये। वे भगवान् आये। इस तरह प्रतीक्षा करनी चाहिये। सारी प्रजा भगवान्के विमानको देखकर उछलने लगी। सबके आतुरता लगी हुई थी। सब बहुत उत्साहित हो रहे थे। भगवान् देखते हैं-इनका तो वैकुण्ठवासियोंसे भी अधिक प्रेम है। जैसे चकोरोंका झुण्ड चन्द्रमाको देखता है, वैसे सब देखते हैं। कष्टको एकदम भूल जाते हैं। भगवान्ने भी उनके अनुसार कार्य किया, एक क्षणमें सबसे मिल लिये।

अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथा जोग मिले सबहिं कृपाला।।
छन महिं सबहि मिले भगवाना। उमा मरम यह काहुँ न जान।।

एक क्षणमें भगवान् सबसे मिल लिये। अनन्तरूप हो गये। जिससे मिलते हैं वही आनन्दित होता है। भगवान् दोषोंकी तरफ खयाल नहीं करते। फिर हम दोषोंकी तरफ देखकर अनुत्साह क्यों लावें।

जन अवगुन प्रभु मान न काऊ। दीन बंधु अति मृदुल सुभाऊ॥

भगवान् बड़े ही दयालु हैं। उद्धार करनेके लिये तैयार रहते हैं। धूलके कण गिने जा सकते हैं पर हमारे कितने जन्म हुए हैं, यह गिनना कठिन है। भगवान्ने यह अन्तका जन्म मनुष्यजन्म दे दिया, बड़ी भारी दया कर दी। भगवान्की इस दयाको हम नहीं स्वीकार करें तो बड़ी ही मूर्खता है। भगवान् कहते हैं-

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।
(गीता ७।१९)

बहुत जन्मों के अन्त के जन्म में तत्त्वज्ञान को प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है-इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।

तब हम अज्ञानी क्यों बनें। सब परमात्मा हैं-यह माननेमें क्या लगता है। इस प्रकार जो भजता है, वही महात्मा है। जब ऐसी बात है तो हम सबको परमात्मा ही क्यों न समझें।

यह बात मनुष्यजन्ममें ही मानी जा सकती है, पशु, पक्षी आदि योनियोंमें यह समझनेका कोई साधन नहीं है। हनुमान्जीजैसी बात तो असंख्य कोटि जीवोंमेंसे किसी एकमें ही घटती है। उस प्रकारकी आशा न रखकर हमें तो इसी जन्ममें, इस जन्मके थोड़ेसे हिस्सेमें ही भगवान्को प्राप्त कर लेना चाहिये।

परमात्माके निराकार स्वरूपके लिये यह युक्ति समझनी चाहिये-

बादलके बाहर-भीतर सर्वत्र आकाश है, बादलकी तरह दृश्य शरीर में सर्वत्र विज्ञानानन्दघन परमात्मा बाहर-भीतर, ऊपर-नीचे सब जगह परिपूर्ण हो रहे हैं। परमात्माके संकल्पके आधार पर ही यह सृष्टि है। हम नेत्रोंको बन्द कर लें। अपने भीतर-बाहर, ऊपर-नीचे आनन्द-ही-आनन्द परिपूर्ण है, ऐसा समझ लेवें। हम आनन्द-ही-आनन्दसे परिपूर्ण हैं। यह शरीर ब्रह्मसे ही उत्पन्न हुआ है, उसीमें स्थित है, उसीमें लीन हो जायगा। जैसे हो जाता है।

आनन्दरूपसे वह परमात्मा हमारे बाहर-भीतर परिपूर्ण है। आनन्दके सिवाय कोई वस्तु नहीं है। वही आनन्द आमोद-प्रमोद सुखके रूपमें आते हैं। आनन्द अत्यन्त सुखरूप है। उस सुखकी कोई सीमा नहीं है। आनन्द-ही-आनन्द है। आनन्दको ब्रह्म समझकर उपासना करनी चाहिये। बुद्धिसे निश्चय करना चाहिये, मनसे मनन करना चाहिये। उस आनन्दका नाम ही नारायण है। नारायण, नारायण, नारायण; आनन्दमय, आनन्दमयका उच्चारण करनेसे मालूम होता है जैसे कोई आनन्दका समुद्र उमड़ आया है। वह आनन्द अपार है, उसमें कोई दूसरी वस्तु नहीं है, अत: वह पूर्ण आनन्द है। वह शान्त आनन्द है, सम है, वह इतना गहरा है कि उसके सिवाय दूसरी वस्तु है ही नहीं, वह जड़ नहीं है, चेतनस्वरूप है, वह अनन्त है उसकी सीमा नहीं है। सब जगह समभावसे परिपूर्ण है। वह नित्य है, अचल है, अव्यक्त है, शुद्ध है, निर्विकार है।

ऐसा आनन्द शरीरके बाहर-भीतर सब जगह परिपूर्ण है। शरीर चलता है तो आनन्दमें ही चलता है, आकाशकी तरह आनन्द सब जगह है। साधनकालमें भी आनन्द है, सिद्धावस्थामें भी आनन्द है। शब्द, अर्थ, ज्ञान सब आनन्द ही है, आनन्दके सिवाय कोई वस्तु है ही नहीं। हृदयमें आनन्दका ही अनुभव भी आनन्द और फलमें भी आनन्द है। सारे भूतशरीर अन्तमें आनन्दमें ही विलीन होकर एक आनन्द ही रह जाता है। बादल सब आकाशमें विलीन होकर एक आकाश ही रह जाता है, वैसे ही एक आनन्द ही रह जाता है। ऐसे ही ध्यानमें मस्त होकर चलें।

सगुणके विषयमें दूसरी बात कही जाती है। हमलोगोंको यहाँसे उठनेपर समझना चाहिये, वे साक्षात् भगवान् ही हमारे साथ क्रीड़ा कर रहे हैं। जैसे रामरूपमें प्रकट होकर भाइयोंके क्रीड़ा की थी, कृष्णरूपमें ग्वालबालोंके साथ की थी, वैसे एक ही बात है। जैसे अत्यन्त प्रिय मित्रके साथ खेलते हैं, हँसहँसकर बोलते हैं। वैसे ही उन्हींके साथ चलें। सोते हैं तो पास-पास में सोते हैं, हँसते हैं तो हँसते हैं। सारी क्रियाएं एक-दूसरे की करते हैं। उनकी वाणी बड़ी आनन्ददायक है। सुनकर शरीर में कम्प होता है, हृदयरूपी सागर में भगवान् के भाव की लहरें उठती हैं। नेत्रोंसे मानसिक रूपसे देख रहे हैं, बड़ा ही मधुर रूप है। मानो नेत्रोंद्वारा रसास्वाद कर रहा हूँ। उस रूपको देख-देखकर, सुन्दर नेत्र, गाल देखकर, उनकी मंद-मंद मुसकान अमृतक ही पान कर रहा हूँ। स्पर्श करता हूँ तो देखता हूँ कैसा दिव्य स्पर्श है। स्पर्शके द्वारा अमृतका आस्वाद ले रहा हूँ। दिव्य गन्ध स्वाभाविक ही हमारी नासिकाके भीतर जा रही है। वे भगवान् हमें देख रहे हैं। अपनी प्रेममयी दृष्टिके द्वारा प्रेमसे भिगो रहे हैं। उस आनन्दसे हम पूर्ण हो रहे हैं। भगवान् जिसको कृपादृष्टिसे देखते हैं, फिर उसे चिन्ता, भय, शोक कहाँ?

प्रेमकी दृष्टिसे देखते हुए हमें प्रेमसे पूर्ण कर रहे हैं। ऐसे प्रभुको हर समय देखता रहे। चन्द्रमा जैसे प्रकाश डालकर शीतल करता है, वैसे ही भगवान् प्रेमरस बरसाते हैं। सारे रोम-रोम, करके अपने वशीभूत करता हो। प्रेमकी रस्सीसे ऐसा बाँध लिया कि हम उसे छोड़ ही नहीं सकते। बस हमारी यह अवस्था सदा ही बनी रहे। हमें कोई आवश्यकता नहीं। सदा प्रेमरस पीते ही रहें। अब और एक बात सुनायी जाती है।

उपनिषदोंमें जहाँ तत्त्वकी बात बतायी गयी है, कहा है कि यह ऐसा विषय है, यदि सूखे लकड़ेको सुनाया जाय तो वह भी सजीव हो जाय। हमलोगोंमें जो मृतककी तरह हैं उनमें भी रस आ जाना चाहिये। भगवान् श्रीकृष्ण जब प्रेमसे वंशी बजाते तो लकड़ी गीली हो जाती, हरी हो जाती, उनसे धुआँ निकलने लगता तो रसोई ठीक नहीं होती। एक गोपी कहती है-

मुरहर रन्धनसमये मा कुरु मुरलीरवं मधुरम्।
नीरसमेधो रसतां कृशानुरप्येति कृशतरताम्।।
ये भगवान् श्रीकृष्णकी ही बातें हैं। अपने घरकी तो हैं नहीं। मैं तो टेपरिकार्डरकी तरह बोल देता हूँ। सब भगवान्के ही वचन हैं। कई सीधे आये हैं, कई कुछ मिलकर आये हैं। भगवान्के वचन आकाशवाणीसे भी उतरते हैं, महात्माओंके वचनोंसे उतरते हैं, शास्त्रोंसे उतरते हैं। हमें तो यह समझना चाहिये कि यह हैं तो भगवान्के वचन, पर रंग क्यों नहीं चढ़ता। वस्त्र जितना साफ होता है उतना ही बढ़िया रंग चढ़ता है। थोड़ा रंग हमारेपर भी अवश्य आता है, किन्तु इसीसे संतोष नहीं कर लेना चाहिये। रंग ऐसा होना चाहिये कि चमकने लग जाय। भगवद्विषयक रंगमें साबुन भी है, अत: वस्त्र मैला हो तो बार-बार रगड़नेसे मैलको काट-काटकर कपड़ेको साफ कर देता है और एकदम रंग चढ़ जाता है। यदि कहें फिर इतना विलम्ब क्यों? यही बात आती है कि कपड़ा मैला है। भगवान्के तत्त्व-रहस्यकी बातें ही रंग हैं, बार-बार उनमें डुबकी लगानी चाहिये। समय-समयपर नामका उच्चारण साबुनकी रगड़-पट्टी है, इससे एकदम साफ हो जाता है तो तुरंत रंग चढ़ जाता है।
चुम्बक होता है, जमीनपर लगानेसे लोहेके परमाणु उसके साथ आ जाते हैं, पर उसका मसाला घिसकर साफ कर दें तो वह लोहेको नहीं पकड़ सकता। हमारे हृदयमें मैल है तभी यह विषयोंकी ओर जाता है। उसको घिसकर साफ कर दें तो फिर उनकी तरफ नहीं जा सकता।
प्रेम या ज्ञानके साबुनसे घिसकर साफ कर दें तो फिर मैलेको छूता ही नहीं। छोटा बच्चा जबतक ज्ञान नहीं होता तभीतक मैलेकी ओर जाता है, जब घृणा हो जाती है तो फिर नहीं जाता। बार-बार घृणा करानेसे ऐसी घृणा हो गयी कि घृणा करानेवालोंसे ज्यादा घृणा हो गयी। इसी तरह जब विषयोंमें घृणा हो जाती है तो उनमें दुर्गन्ध आती है, पासमें भी नहीं जा सकता। वैराग्यका नशा चढ़ जाता है तो फिर इतर, फुलेल मूत्रके समान हो जाते हैं। जितने भी स्त्री आदिके विषय हैं, विष्ठा-मूत्रमें और उनमें अन्तर ही क्या है। विष्ठाके समान हैं। साक्षात् आनन्दको छोड़कर घृणित पदार्थकी तरफ दृष्टि करना मूर्खता है। थोड़ा भी ज्ञान हो जाय तो फिर पासमें भी नहीं जाता।
जब प्रभुमें प्रेम होता है तो वह उसे छोड़कर कहीं जा ही नहीं सकता। आनन्दका ही प्रेमके रूपमें प्रादुर्भाव होता है, आनन्द, प्रेम उसके ही मोटे रूप हैं। आकाशमें बादल ही बूंद, ओले, बर्फके रूप में होते हैं, वैसे ही वह आनन्दमय परमात्मा ही रस, आनन्दस सुखके रूप में परिणत होता है, उस आनन्द में डूब जानेपर फिर कोई उसको छोड़ ही कैसे सकता है। उस भगवान्का वियोग उसे तड़पाता है। मछलीका जब जलसे वियोग होता है, फिर उसे जलमें डालें तो उसमें प्राण आ जाते हैं।
भगवान्के तत्व-रहस्य-गुण-लीलाकी बातें ऐसी हैं कि उनको समझ लेनेपर फिर उन्हें छोड़ नहीं सकते। उसमें डुबकी लगानी चाहिये। साक्षात् अलौकिक रूप है, उसमें तन्मय हो जाना चाहिये।
हमको समझना चाहिये, वह आनन्द, ज्ञान, तत्त्व, रहस्य प्रभाव क्या है? महान् प्रभुका साक्षात् निराकार स्वरूप ही रंग है। रंगके हौदमें कपड़ा डुबो दे तो अणु-अणुमें रंग प्रविष्ट हो जाय। वैसे ही परमात्माके स्वरूपकी चेतनता, शान्ति हमारे अन्दर प्रविष्ट हो गयी। परमात्माके रंगमें रँगकर तृप्त हो गये। वह रंग आया कहाँसे? परमात्मा जो सामने खड़े हैं उनसे। चन्द्रमा जैसे हम उसमें डूब रहे हैं। चन्द्रमासे अमृत चू रहा है, वैसे ही आकाशमें परमेश्वर खड़े हैं, उनसे प्रेम, आनन्दकी वर्षा हो रही है। जैसे सागरमें बर्फको डुबो दे, वैसे ही हम उसमें डूब रहे हैं। ऐसे डूबे हुए हैं जैसे रंगकी हौदमें कपड़ेको डुबा दें। सर्वत्र रंग ही रंग हो जाय। चेतनतारूप जलमें घुले हुए रंगमें ऐसे रैंग गये हैं कि बस उसके सिवाय कुछ नहीं है। तन्मय होकर आनन्दरूप हो रहे हैं। यहाँसे चलते हैं, वह इष्टरूप साथ-साथ चलता है। उसके दर्शन, भाषण, स्पर्शसे उत्तरोत्तर इतने मुग्ध हो रहे हैं कि अपनेको ही भूल गये हैं। उसके सिवाय न कोई दूसरी चीज दीखती है और न अनुभव होती है। सियावर रामचन्द्रकी जय।

शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!

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    अनुक्रम

  1. भजन-ध्यान ही सार है
  2. श्रद्धाका महत्त्व
  3. भगवत्प्रेम की विशेषता
  4. अन्तकालकी स्मृति तथा भगवत्प्रेमका महत्त्व
  5. भगवान् शीघ्रातिशीघ्र कैसे मिलें?
  6. अनन्यभक्ति
  7. मेरा सिद्धान्त तथा व्यवहार
  8. निष्कामप्रेमसे भगवान् शीघ्र मिलते हैं
  9. भक्तिकी आवश्यकता
  10. हर समय आनन्द में मुग्ध रहें
  11. महात्माकी पहचान
  12. भगवान्की भक्ति करें
  13. भगवान् कैसे पकड़े जायँ?
  14. केवल भगवान्की आज्ञाका पालन या स्मरणसे कल्याण
  15. सर्वत्र आनन्दका अनुभव करें
  16. भगवान् वशमें कैसे हों?
  17. दयाका रहस्य समझने मात्र से मुक्ति
  18. मन परमात्माका चिन्तन करता रहे
  19. संन्यासीका जीवन
  20. अपने पिताजीकी बातें
  21. उद्धारका सरल उपाय-शरणागति
  22. अमृत-कण
  23. महापुरुषों की महिमा तथा वैराग्य का महत्त्व
  24. प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होता है
  25. जैसी भावना, तैसा फल
  26. भवरोग की औषधि भगवद्भजन

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